नागमती वियोग (ग्यारह)

nagamti wiyog (gyarah)

मलिक मोहम्मद जायसी

मलिक मोहम्मद जायसी

नागमती वियोग (ग्यारह)

मलिक मोहम्मद जायसी

और अधिकमलिक मोहम्मद जायसी

    फागुन पवन झँकोरै बहा। चौगुन सीउ जाइ किंमि सहा॥

    तन जस पियर पात भा मोरा। बिरह रहै पवन होइ झोरा॥

    तरिवर फरै झरै बन ढाँखा। भई अनपत्त फूल फर साखा॥

    करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कहँ भा जग दून उदासू॥

    फाग करहि सब चाँचरि जोरी। मोहिं जिय लाइ दीन्हि जसि होरी॥

    जौं पै पियहि जरत अस भावा। जरत मरत मोहि रोस भावा॥

    रातिहु देवस इहै मन मोरें। लागौं कंत थार जेउँ तोरें॥

    यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाउ।

    मकु तेहि मारग होइ परौं कंत धरै जहँ पाउ॥

    फागुन में हवा झकझोरती हुई बहती है। शीत चौगुना हो जाता है। कैसे सहा जाए? मेरा शरीर पीले पत्ते जैसा हो गया है। विरह में वह पत्ता भी टिक पाएगा, क्योंकि विरह पवन बनकर उसे झोर डालेगा। वृक्षों के पत्ते झड़ रहे हैं, और वन ढाके भी झड़ रहे हैं। फूल-फल वाली शाख़ाएँ पत्तों से रहित हो गई हैं। अब कलियों द्वारा वनस्पति हुलसित होने लगी हैं। पर मेरे लिए संसार दूना उदास हो गया है। सब चाँचर जोड़कर फाग मना रहे हैं। मेरे जी में जैसे किसी ने होली की आग लगा दी है। यदि प्रिय को इस तरह जलना अच्छा लगता है, तो मुझे जलने-मरने में भी कुछ रोष नहीं है। रात दिन मेरे मन में यही है, कि हे कंत, तेरे थाल जैसे हृदय से लग जाँऊ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पदमावत (पृष्ठ 351)
    • रचनाकार : मलिक मोहम्मद जायसी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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