रूप वर्णन

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मंझन

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    निकलंकी ससि दुइज लिलारा, नौ खंड तीनि भुअन उँजियारा।

    बदन पसीज बुंद चहुँ पासा, कचपचिए जेंव चाँद गरासा।

    म्रिगमद तिलक ताहि पर धरा, जानहुँ चाँद राहु बस परा।

    गयौ मयंक सरग जेहि लाजा, सो लिलाट कामिनि पहँ छाजा।

    सहस कला देखी उजिआरा, जग ऊपर जगमगहिं लिलारा।

    तर मयंक ऊपर निसि पाटी, बनी अहै कहि रीति।

    जानहु ससि निसि तें, भै सूरति बिपरीति॥

    काम कमान रहसि कर लीन्हा, बर सौं तोरि टूक दुइ कीन्हा।

    पुनि धरती सौं मेलि लँडारी, तेइ बनाइ मधु भौंह सँवारी।

    भौंह सँवारि सोह कस नारी, मदन धनुख तौ धरा उतारी।

    जौ चखु चढ़ी भौंह बर नारी, इंद्र धनुख दे पनच अंडारी।

    तेइ धनुख मदन त्रिभुअन जीता, बहुरि उतारि नारि कौ दीता।

    जीति तिलोक नेवास भौ, जगत रहा जुझार।

    देखत जाहि हिये सर निफरे, ताहि को जीतै पार॥

    सूते सेज स्याम जो राते, जगत होते हनि कै जाते।

    चपल बिसाल तीख जो बाँके, खंजन पलक पंख तें ढाँके।

    जनु पारधी एकंत जीव डरई, पौढ़ा धनुख सीस तर रहई।

    दूनौ नैन जीव कर ब्याधा, देखत उठै मरन कै साधा।

    सन्मुख मीन केलि जनु करहीं, कै जनु दुइ खंजन उड़ि लरहीं।

    अचरज एक जो बरनौं, बरनति बरन जाइ।

    सारंग जनु सारंग तर, निरभय पौढ़ा आइ॥

    बरुनी बान बिसह बुझाईं, मटक परत उर जाहि समाई।

    बरुनी बान सन्मुख भै जाही, रोवँ-रोवँ तन झाँझर ताही।

    दिस्टि पंथ गै हिये समानी, रुधिर करेज औटि भौ पानी।

    जब बरुनी सौं बरुनि मेरावै, जानहु छुरी सौं छुरी लरावै।

    बरुनी बान जीति को पारा, एक मूठि सौ खाँड पबारा।

    बरुनी बान के मारे, मैं सकेउँ जग पेखि।

    केहि म्रितु भाई जग, बरुनी सोहगिनि देखि॥

    नाक सरूप बरनै पारेउँ, तीनि भुअन हेरि मैं हारेउँ।

    कीर ठोर खरग कि धारा, तिलक फूल मैं बरनि पारा।

    उदयागिरि जौ कहौं तौ नाहीं, ससि रे सूर दुइ बाद कराहीं।

    निकट कोऊ संचरै पारा, निसि दिन जियै सौ बास अधारा।

    केहि लै जोरौं पटतर नासा, ससि रे सूर दुइ करैं बतासा।

    नाक सरूप सोहागिनि, केहि लै लावौं भाउ।

    जाके ससि जौ सूर निसि बासर, ओसरी सारैं बाउ॥

    अति सरूप रस भरे अमोला, जो सोभित मुख मध्य कपोला।

    मैं मतिहीन बरनि आई, मुख कपोल बरनौं केहि लाई।

    नहिं जानौं दहुँ के तप सारा, सो बेरसहिं यह निधि संसारा।

    अस कपोल बिधि सिरा सोहाये, जो जाइ किछु उपमा लाये।

    मानुस दहुँ बपुरा केहि माहीं, देवता देखि कपोल तबाहीं।

    सुर नर मुनि गन गंध्रप, काहू रहेउ गियान।

    देखि कपोल सोहागिनि, टरै महेस धियान॥

    अधर अमीं रस बास सोहाये, पेम प्रीति हुत रकत तिसाये।

    अति सुगंध कोमल रस भरे, जानहु बिंबु मयंकम धरे।

    पटतर लाइ जाइ बखानी, जानहु अमी गारि बिधि सानी।

    अघर अमी रस भरे अपीऊ, कुँअर जान निसरै मम जीऊ।

    कब सो घरी बिधनहि निर्माइहि, जब यह जीव अधर पर आइहि।

    अनल बरन सोहागिनी, जगत सुधानिध जान।

    अचरज अंब्रित अग्नि सम, देखत जरै परान॥

    दसन जोति बरनि नहिं जाई, चौंधी दिस्टि देखि चमकाई।

    नेक बिसनाइ(?) नींद मो हँसी, जानहु सरग सौं दामिनि खसी।

    बिहरत अधर दसन चमकाने, त्रिभुअन मुनिगन चौंधि भुलाने।

    मँगर सुक्र गुर सनि चारी, चौका दसन भय राजकुमारी।

    नहिं जानौं दहु केहि दुरि जाई, रहे जाइ ससि माँह लुकाई।

    जौ कोइ कहै बुधि बिसरा, तेहि का सुनहू सुभाउ।

    बिरह गुपुत जग माहीं, काहू देखा काउ॥

    दुइ तिल परा मुख ऊपर आई, बरनि जाइ जे उपमा लाई।

    जाइ कुँअर चखु रूप लोभाने, हिलगे बहुरि जाइ नहिं आने।

    तिल होइँ रैनि की छाया, जाके सोभ रूप मुख पाया।

    अति निरमल मुख मुकुर सरेखा, चखु छाया तामों तिल देखा।

    स्याम कुँअरि लोयेन पूतरी, मुख निर्मल पर तिल भै परी।

    अति सरूप मुख निर्मल, मुकुता सम परवान।

    तामों चखु की छाया, दीसै तिल अनुमान॥

    सुधा समान जीभ मुख बाला, बोलति अति बचन रसाला।

    सुनत बचन अंब्रित रस बानी, मृतक मुख भरि आवै पानी।

    सुनत जीभ मुख वचन अमोला, सौ सब भए जगत मिठबोला।

    कौ तपा जग जन्मिहि आइहि, जो रसना पर रसना लाइहि।

    अति रसाल रसना मुख रसी, दुइ अरि बीच आइ रस बसी।

    अति रसाल रसना मुख कामिनि, अमी सुरस परवान।

    बदन चांद महं अंब्रित, अमी सुरा कै जान॥

    सुंदर सीप दुइ स्रवन सोहाये, सरग नखत जनु बारि जराये।

    तरिवन हीर रतन नग जरे, अदित सुक्र जनु खुटिला परे।

    दुइ दिस दुइ चक्कैं अनिआरे, ससि संग आइ उये जनु तारे।

    जग काकैं अस भाग बिधाता, स्रवनन लागि कहब जो बाता।

    बाला बदन चांद रखवारा, मानौ काहु कीतु दुइ फारा।

    कानन्हि चक्र नरायन, दीपै दुहुँ दिसि जोति।

    नातरि राहु गरासत, जौ चक्र भै होति॥

    गिव अनूप केहि बरनौं लाई, कै बिसकरमै चाक भँवाई।

    कर्म लीख दहुँ काहि लिलारा, कै प्रयाग गै करवत सारा।

    केहि के अस गीव बिधि निर्माई, धन जीवन जे बेलसब गिव लाई।

    धन जग जीवन धन औतारा, जेहि कलि बिधनै अस गीव सारा।

    देखत तीनि कंठ की रेखा, सजग सरीर होइ अस भेखा।

    तीनि रेख अति सोभित, गीव सोहागिनि दीस।

    कौन सो पति जाहि लगि निरमै, ऐस गीव जगदीस॥

    भुजा सीमु बिसकरमै गढ़ी, हेरि रहेउँ ना पटतर चढ़ी।

    सबल सरूप अतिहिं बरिआरे, देखि बीर अबलां बलिहारे।

    अनूप दोइ बनी कलाई, काम कमान तै कूटि चढ़ाई।

    तेहिं ऊपर सुंदर हथोरिं, फटिकसिला जनु ईंगुर घोरीं।

    बिरही जन जहवाँ लगि मारे, तिन्ह के रकत दिसैं रतनारे।

    सोभित सबल सरूप सोहाये, त्रिभुअन जीतनहार।

    दहु केहि देहिं अलिंगन, धन सो जग औतार॥

    अति सरूप दुइ सिहुन अमोले, जेहि देखत त्रिभुअन मन डोले।

    कठिन हिरदै महँ बिधि निर्मये, ताते कठिन सिहुन दुइ भये।

    जौ हिरदै पर हिरदै सुसरे, कुच आदर कहँ उठि भै खरे।

    दुऔ अनूप सिरीफल नये, भेंट आनि तरुनापा दये।

    जबहिं प्रानपति हियरे छाये, कुच सकोच उठि बाहर आये।

    कठिन कोरारे कलिसिरे, गरब काहूँ नवाहिं।

    दुऔ सीव के संझैत, आपुस महें मिलाहिं॥

    अनिआरे जो तिखै अन्याई, दिस्टि साथ उर पैसहिं जाई।

    सोभित देव स्याम सिर बाने, महावीर त्रिभुअन जग जाने।

    दोऊ सींव पर चाहहिं लरा, हार आइ तब अंतरु परा।

    दुऔ बीर जग जूह जुझारा, सोहै ऐस उर हारा।

    ऐने पैने उन्ह केर सुभाऊ, संवत सौंह पाछे काऊ।

    बिपरीत भाउ तिन्हहि कै, सुनहू आचरिज बिसेस।

    जहँ उपजै नहिं सालै, सालै तिन्हैं जो देख॥

    रोमावलि नागिनि बिस भरी, बेंबैर हुतै जनु गिरि अनुसरी।

    नाभि कुंड महँ परी जो आई, घूमि रही पै निसरि जाई।

    पातर पेट अनूप सोहाई, जनु बिधि बाजु अंत निर्माई।

    लंक छीन देखि चित हरई, भार नितम्ब टूट जनु परई।

    छुइ जाइ निहथ पसारी, मानहु छुअत टूट हत्यारी।

    टूटि परै करि कामिनी, गरुअ नितंब के भार।

    जौ होत दिढ़ बंधन, त्रिबली तासु अधार॥

    करि माहें त्रिबली कसिअई, बिधनै गढ़त मूठि जनु गही।

    गुर जन लाज चित महँ माना, तौ नहि मदन भँडार बखाना।

    देखि नितंब चिहुँट चित लागा, परत दिस्टि मनमथ तन जागा।

    जुगुल जाँघ देखि चित थहराई, मन भरमा कछु कहा जाई।

    राते कौंल जो सेत सोहाये, तरवा कौंल नहिं पटतर लाये।

    बिपरित कनक केदली, गज सुंड सुभाउ।

    उपमा देत लजानेऊँ, सुनहु कहौं सतभाउ॥

    बिन कटाछ बिनु भाव सिंगारा, सूते सेज को बरनै पारा।

    जो बिधि सिरजा जुवा अनूपीं, सहज ते बाजु सिंगार अनूपीं।

    सगरी सिस्टि केर अहिबाता, लज्या-बिहित मदन भौ गाता।

    सोवत देख सैन बिकरारा, उठ कुअँर तन बिरह बिकारा।

    सहज चित्त उपजा बैरागू, बिरह आइ भौ जिव कर लागू।

    बदन धनुख दुति उदित, देखि रहा मन चेतु।

    धन सो जन्म जग ताकर, जासौं उपजै हेतु॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मधुमालती (पृष्ठ 29)
    • संपादक : शिवगोपाल मिश्र
    • रचनाकार : मंझन
    • प्रकाशन : हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी
    • संस्करण : 1963

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