बारहमासा (चैत्र)

barahmasa (chaitr)

मुल्ला दाउद

मुल्ला दाउद

बारहमासा (चैत्र)

मुल्ला दाउद

और अधिकमुल्ला दाउद

    चैति बनसपति करी निकारा। हरियर बरन सेतु (सेत) रतनारा॥

    बिहसैं(से) क(कं)वरु अ(अउ)चंदनु गंधाना॥

    कुसुम बासु सहि भवरु लुभांना॥

    सुरिजन आई(इ) बसंतु तुलाना। पिउ पर बेली देषि लुभांना॥

    कंतु बसंतु जौ (जउ) घरि आवै। रितु बसंत मोहि देष(षि) भावै॥

    लोरिक आय(इ) देषि फुलवारी। तुम्ह बिनु सूकै नारि ग(गु?) वारी॥

    यकसर नारि मरै निसि काटेंहि सेज बिछावै।

    कहि सुर(रि)जन धन पास तु(तो) तुल(तिल?) ऐक पावै॥

    मैनां कहती हैं कि चैत्र में वनस्पतियों ने कलियाँ निकालीं, जिससे वे हरी, श्वेत और रत्नालु हो रहीं थीं। कमल विकास कर रहे थे, चंदन सुगंध करने लगा था एवं कुसुमों की सुवास से सारे भ्रमर उन पर भटक रहे थे। सबके आत्मीय वसंत में पहुँचे थे किंतु मेरा प्रिय पराई नारी पर लुभाया हुआ था। मेरा पति वसंत में घर नहीं लौट रहा था। वसंत ऋतु को देखना भी मुझे नहीं भा रहा था। लोरिक! तू आकर अपनी फुलवाड़ी (यौवना स्त्री) को देख जा, तेरे बिना यह नारी सूख रही है।' यह अकेली नारी रात्रि में मरती और काँटों पर अपनी शैया बिछाती थी। सुरजन, कहना कि वह धन्या तेरा-पार्श्व एक तिल भी नहीं पा रही थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चांदायन (पृष्ठ 349)
    • रचनाकार : मुल्ला दाउद
    • प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
    • संस्करण : 1967

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