विधवा

widhwa

गोपालशरण सिंह

और अधिकगोपालशरण सिंह

    हे प्राणों के प्राण,

    हृदय के हृदय हमारे!

    मन-मानस के हंस;

    वंश के भूषण प्यारे!

    होते थे तुम कभी,

    पल भर हमसे न्यारे।

    फिर कैसे तुम हमें,

    छोड़ कर आज सिधारे?

    कहाँ जायँ, क्या करें,

    कहाँ तुमको हम पावें?

    मन की दुस्सह जलन,

    हाय! किस भाँति मिटावें?

    बुझने को यह आग,

    नहीं, यह भूल जावें।

    चाहे जितना नीर,

    नयन-नीरद बरसावें।

    जब तुम हमको छोड़,

    यहाँ से नाथ! पधारे।

    चले गये थे साथ,

    तुम्हारे प्राण हमारे।

    किंतु जाने लौट,

    कहाँ से ये फिर आये?

    भोंगे अब यातना,

    व्यर्थ क्यों हैं घबराये?

    हे अपहृत हो गया;

    हृदय! तेरा धन प्यारा।

    अब इस जग में तुझे,

    रह गया कौन सहारा?

    तो भी अब तक रुकी,

    नहीं चंचल गति तेरी।

    क्या होनी है और,

    अधिक अब दुर्गति तेरी?

    होगी हम-सी और,

    कौन इस भाँति अभागी?

    आई मूर्च्छा हमें,

    किंतु वह भी झट भागी।

    क्यों सदा रह गये

    मुँदे ही नयन हमारे?

    क्या देखेंगे भला,

    यहाँ अब ये बेचारे।

    अब हम किसके लिए

    नाथ! शृंगार करेंगी?

    किस प्रकार यह शेष

    आयु हम पार करेंगी?

    कब तक हम इस भाँति

    आह ही आह भरेंगी?

    तड़प-तड़प जल-हीन

    मीन-सी हाय! मरेंगी।

    प्यारे थे जो तुम्हें

    जलद की शोभा धारे।

    वे ही लंबे केश

    कटेंगे आज हमारे।

    इनका कटना कहो,

    भला किस भाँति सहोगे?

    भृंगावलि की किसे

    नाथ! उपमा अब दोगे?

    ललित सलोनी लता

    समझ कर हमको मन में।

    भृंग-वृंद जब हमें

    सतावेगा उपवन में।

    आकर उससे कौन

    बचावेगा तब हमको?

    बाहु-जाल में कौन

    छिपावेगा तब हमको?

    कौन कहेगा प्राण-

    नाथ प्यारी अह हमको?

    सिखलावेगा कौन

    चित्रकारी अब हमको?

    कौन हमारी हृदय-

    वल्लरी को सींचेगा?

    कौन हमारी आँखे

    अचानक अब मींचेगा?

    चुने-चुने वे गीत

    सरस सुंदर मनभाये।

    जिन्हें तुम्हीं ने हमें

    प्रेम से थे सिखलाये।

    अब हम किसको नाथ!

    सुनावेंगी निज मुख से?

    किसके आगे बीन

    बजावेंगी नित सुख से?

    सुन कर कहते ‘प्रिये’

    हमें तुमको अति सुख से।

    ‘प्रिये’ ‘प्रिय’ रट रहा

    कीर अब भी निज मुख से।

    करती उर में छेद

    आज उसकी वह बोली।

    मानो है मारता

    हृदय में कोई गोली।

    हमें खिझाना और

    तुम्हारा हमें मनाना।

    बात बनाना बात-

    बात में हमें झपाना।

    हाय! स्वप्न के सदृश

    हो गईं वे सब बातें।

    आवेंगे वे दिवस

    आवेंगी वे रातें।

    किस निर्दय ने हृदय

    रत्न! है तुम्हें चुराया?

    किस प्रकार रोकती,

    तनिक भी जान पाया?

    अगर जानतीं तुम्हें

    कदापि जाने देतीं।

    मन-मंदिर में तुम्हें

    छिपाकर हम रख लेतीं।

    अगर जानतीं नाथ!

    चले तुम यों जाओगे।

    और नहीं फिर कभी

    लौट कर तुम आओगे।

    तो हम करतीं बंद

    तुम्हें अपनी पलकों में।

    अथवा रखतीं तुम्हें

    फूल-सी निज अलकों में।

    किस प्रकार हे नाथ!

    मृत्यु ने तुम्हें लुभाया?

    क्या हमारा ध्यान

    तनिक भी तुमको आया?

    विश्व-विदित तुम सदा

    सदाचारी थे भारी।

    प्यारी कैसे हुई

    तुम्हें वह कुलटा नारी?

    अब तक हमने कभी

    नहीं विपदा को जाना।

    किंतु आज विकराल

    रूप उसका पहचाना।

    मृदुल लता जो नहीं

    धूप भी सह सकती है।

    वह क्या जीवित प्रबल

    अनल में रह सकती है?

    क्या तुम्हारा विरह

    नहीं हम सह सकती थीं।

    तुमको देखे बिना,

    पल भर रह सकती थीं।

    फिर कैसे हम सदा

    तुम्हारे बिना रहेंगी?

    चिर-वियोग की विषम

    व्यथा किस भाँति सहेंगी?

    नहीं किसी को प्रीति

    अटल पत्रों पर रहती?

    जब हम तुमसे कभी

    हँसी में थी यों कहती।

    तुम उसका प्रतिवाद

    सदा करते थे भारी।

    भूल गये क्या नाथ!

    आज वे बातें सारी?

    करो तनिक विलंब

    हृदय का ताप मिटाओ।

    बहुत रो चुकीं नाथ!

    हमें मत और रुलाओ।

    हम व्याकुल हैं हमें

    व्यर्थ ही मत कलपाओ।

    थे सदैव तुम सदय,

    अदयता मत दिखलाओ।

    तुम्हें कोसतीं व्यर्थ,

    नहीं कुछ दोष तुम्हारा।

    दुष्ट दैव ने किया

    आज यह हाल हमारा।

    देकर पहले सौख्य

    सभी विधि ने है लूटा।

    दिया हमें था भाग्य

    उसी ने ऐसा फूटा।

    अब सारा संसार

    हमें लगता है सूना।

    जँचता है वह विजन

    विपिन का ठीक नमूना।

    यह गृह हमको स्वर्ग-

    सदन-सा था सुखदायी

    पर है गौरव-सदृश

    आज अतिशय दुखदायी।

    व्यथा-कथा-सी हुई

    चूड़ियाँ ये बेचारी।

    नागिन-सी डस रहीं

    हमें ये लटें हमारी।

    हुआ हमारा भाल-

    बिंदु भी अब निष्फल-सा।

    जला रहा है शीश

    आज सिंदूर अनल-सा।

    लज्जित जिनकी ज्योति

    देख होते थे तारे।

    क्या होंगे ये रत्न-

    जटित आभूषण सारे?

    सुंदरता का मिटा

    प्रयोजन है अब सारा।

    जीवन भी है भार-

    रूप हो गया हमारा।

    खोया है जो रत्न

    मिलेगा कभी नहीं वह।

    सूख गया जो सुमन

    खिलेगा कभी नहीं वह।

    व्यथित हमारा हृदय

    शांति कैसे पावेगा?

    बीत गया सुख-समय

    वह फिर से आवेगा।

    छाया ऐसा अंधकार

    जो नहीं हटेगा।

    आया ऐसा विपत्-

    काल जो नहीं कटेगा।

    मन में ऐसा शोक

    समाया जो घटेगा।

    टूक-टूक हो गया

    हृदय, क्या और फटेगा?

    भाषा-द्वारा व्यक्त

    होगी व्यथा हमारी।

    स्वयं व्यथा ही सदा

    कहेगी कथा हमारी।

    निद्रावश अब नहीं

    कभी ये नयन मुँदेंगे।

    आवेगी जब मृत्यु

    तभी ये नयन मुँदेंगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संचिता (पृष्ठ 120)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1939

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