देव-दासी

dew dasi

गोपालशरण सिंह

और अधिकगोपालशरण सिंह

    तेरे मंजु मनोमंदिर में

    करके पावन प्रेम-प्रकाश।

    करता है वसु-याम सुंदरी

    कौन दिव्य देवता निवास?

    बार दिया है जिस पर तूने

    तन-मन-जीवन सभी प्रकार,

    कभी दिखाता है क्या वह भी

    तुधे तनिक भी अपना प्यार?

    बनी चकोरी है तू जिसकी

    कहाँ छिप रहा है वह चंद?

    है किस पर अवलंबित बाले!

    तेरे जीवन का आनंद?

    किस प्रियतम की प्रतिभा को तू

    करती है सहर्ष उर-दान?

    हो जाती है तृप्त चित्त में

    तू करके किसका आह्वान?

    पुष्पहार तू इष्टदेव को

    देती है प्रतिदिन उपहार,

    पर क्या वह बनता है तेरा

    कभी मनोज्ञ गले का हार?

    तेरे सम्मुख ही रहते हैं

    संतत मूर्तिमान भगवान,

    करती रहती है वरनाने,

    फिर तू किसका हरदम ध्यान?

    किस प्रतिमा के दर्शन पाकर

    होता है तुझको उल्लास?

    और लौटती है तू उससे

    लेकर कौन प्रेम-उपहार?

    शोभामयी शरद-रजनी में

    बनकर नटवर तेरे नाथ,

    रुचिर रास-लीला करते हैं

    कभी तुझे क्या लेकर साथ?

    क्या वसंत में धारण करके

    मंजुल वनमाली का वेष,

    तेरा विरह-ताप हरने को,

    आते हैं तेरे हृदयेश?

    होती थीं व्रज की बालाएँ

    बे-सुध कर जिसका रस-पान,

    क्यों सुनाता है मुरलीधर

    तुझको वह मुरली की तान?

    हरनेवाले मान मानिनी

    राधारानी के रस-खान,

    क्या तुझको भी कभी मनाते

    जब तू कर लेती है मान?

    पाने को प्रभु की प्रसन्नता

    करती है तू सतत प्रयास।

    रहती है तू सदा छिपाए

    उर में कौन गुप्त अभिलाष?

    क्या प्रतिमा के पूजन से ही

    होता है तुझको संतोष?

    क्या कभी आता है तंवी!

    तुझे भाग्य पर अपने रोष?

    करके निर्भयता से तेरे

    अनुपम अधरामृत का पान,

    कहाँ गगन में छिप जाते हैं

    बाले! तेरे मधुमय गान?

    छा जाती है प्रतिमाओं पर

    एक नई द्युति पुलक समान—

    कैसी ज्योति जगा देती है

    तेरी मधुर-मधुर मुस्कान!

    तुझे अशांत बना देती है

    तेरे उर की कौन उमंग?

    है किस ओर खींचती तुझको

    तेरे मन की तरल तरंग?

    हर के रोषानल में जलकर

    हुआ मनोभव जो था क्षार,

    तुझे उन्हीं के मंदिर में क्या

    वह देता है क्लेश अपार?

    प्रेम-वंचिता होने पर भी

    तू दिखती है पुलकित गात।

    किस कल्पना-लोक में विचरण

    करती रहती है दिन-रात?

    तूने ली है मोल दासता

    करके निज सर्वस्व-प्रदान।

    रो उठता है हृदय, देखकर

    यह तेरा विचित्र बलिदान।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मानवी (पृष्ठ 30)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1938

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