अनाथ

anath

गोपालशरण सिंह

और अधिकगोपालशरण सिंह

    देखकर ही है इन्हें, होती बड़ी मन में व्यथा;

    क्या हैं ये देहधारी करुण रस ही सर्वथा?

    हाय! भर आता हृदय है और रुकता है गला;

    इन अनाथों की कथा कैसे कहे कोई भला?

    इन अभागों के अभागे दृग भरे हैं नीर से;

    वे दयामय के हृदय से ज्यों सरोज समीर से;

    हैं किसी को खोजते मानो सतृष्ण अधीर से।

    जो दिलाती याद है इनके मरे माँ-बाप की;

    छाप-सी इनके मिलन मुख पर लगी संताप की।

    है बहुत ही साफ़, उसको देख सकते है सभी;

    चंद्रमा का कालिमा भी क्या भला छिपती कभी?

    चल बसे माता-पिता इन बालकों को छोड़ के;

    तज दिया इनको सभी ने प्रेम-बन्धन तोड़ के।

    किंतु ये दुख भोगने को हाय! जीते रह गए;

    निज दृगों के आँसुओं के नित्य पीते रह गए।

    हैं कुछ अवलंब इनको विश्व-पारावार में;

    बह रह हैं तृण-सदृश्य उसकी प्रखरतर धार में।

    दुधमुँहे बच्चे कहाँ ये आर वे लहरें कहाँ?

    इस दशा में ये जाने जी रहे कैसे यहाँ?

    ये अभागे जन्म में ही दुख के पाले पड़े;

    देखिए, सब अंग इनके क्या हैं काले पड़े?

    हैं भटकते रात-दिन, हैं पैर में छाले पड़े;

    हाय! तो भी अन्न के रहते इन्हें लाले पड़ें।

    निपट नन्हें अंग सुमन-से सुकुमार हैं;

    हैं निरे नादान ये सब तौर से लाचार हैं।

    किंतु इनके शीश पर गिरि-तुल्य दुख का भार है;

    दुष्ट निर्दय दैव को धिक्कार है धिक्कार है।

    है नसीब हुआ कभी इन्हें ख़ुशी से खेलना;

    बालपन में ही पड़ा इनको विषम दुख झेलना।

    अधखिले ही जब रहे सुंदर सुमन कामल निरे;

    हाय! उन पर व्योम से आकर तभी ओले गिरे।

    मौज से खाना थिरकना कूदना हँसना सदा;

    इन अभागों को कभी इस जन्म में रहा बदा।

    लोग कहते हैं किसे सुख, यह इनको ज्ञात हैं;

    पेट का ही पीटना इनके लिए दिन रात है।

    सह चुके हैं क्लेश ये अब तक कठिन जितने यहाँ;

    दिवस इनकी आयु के बोते अभी उतने कहाँ?

    है नहीं जाना इन्होंने निज पिता के प्यारे को;

    प्रेम से परिपूर्ण मात के मृदुल व्यवहार को।

    है मिला बालक-सुलभ सुख का इनको लेश भी;

    हाय! इनके क्लेस को है कह सकता शेष भी।

    क्या भला है भेद इनमें और उस मृदु फूल में;

    जो लता को गोद से गिर कर पड़ा है धूल में।

    और बच्चे हैं मुदित माँ के प्रचुर चुमकार से;

    हें दुखी निष्ठुर जनों के ये निठुर दुतकार से।

    हर्ष से हँस कर उधर वे पीटते हैं तालियाँ;

    पीटते निज माथ हैं खाकर इधर ये गालियाँ।

    क्या कभी मिलता इन्हें भरपेट खाने के लिए?

    छटपटाते प्राण इनके त्राण पाने के लिए।

    ये भले ही कुछ करें निज दुख हटाने के लिए;

    पर यह भूलें कभी वे हैं जाने के लिए।

    पड़ रहा जाड़ा कड़ा है ये निपट पट-हीन हैं;

    वस्त्र लायें ये कहाँ से हाय! ये अति दीन हैं।

    पवन-कम्पित मृदु लता-सी कँप रही सब देह है;

    लें शरण जाकर कहाँ इनके कोई गेह है?

    यह कठोर मही इन्हें है सेज सोने के लिए;

    हाय! सोने के लिए है, या कि रोने के लिए।

    लोटने से धूल पर मिलती इन्हें क्या शांति है?

    शांति तो मिलती नहीं क्या दूर होती श्रांति है?

    क्या इन्हें लू की लपट है क्या कड़ी बरसात है;

    क्या शिशिर की शीत इनको क्या भयंकर रात है?

    हों क्यों ओले बरसते करें ये हाय! क्या?

    भीख माँगें जो जाकर तो मरें निरुपाय क्या?

    माँगने में भीख इनको क्या भला अब लाज है?

    याचना को छोड़ इनको क्या सहारा आज है?

    आत्म-गौरव भाव इनके कर चुका विधि चूर है;

    किंतु तो भी वह इनके क्लेश करता दूर है।

    जब अनाथ अभाग्यवश होता कभी बीमार है;

    तब कहे किससे किसे उससे तनिक भी प्यारा है?

    कौन ओषधि दे दया कर जो उसे दरकार है;

    रोग अपना आप ही करता उचित उपचार है।

    क्या इनको देखकर दृग फेर लेते हैं सभी;

    दृष्टि इन पर प्रेम की क्या डालता कोई कभी?

    सान्तवना भी शोक में देता इन्हें कोई नहीं;

    है इनके आँसुओं का पोंछने वाला कहीं।

    रह गया कोई इनका ये किसे अपना कहें;

    अब भला संसार में किसके सहारे ये रहें?

    तज चुके सब साथ इनका, ये नितांत अनाथ हैं,

    है भरोसा बस उन्हीं का जो सभी के नाथ हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संचिता (पृष्ठ 114)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1939

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