ओ राही दिल्ली जाना तो

o rahi dilli jana to

गोपाल सिंह नेपाली

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ओ राही दिल्ली जाना तो

गोपाल सिंह नेपाली

और अधिकगोपाल सिंह नेपाली

    राही दिल्ली तो, कहना अपनी सरकार से

    चरख़ा चलता है हाथों से शासन चलता तलवार से

    यह राम-कृष्ण की जन्मभूमि, पावन धरती सीताओं की

    फिर कमी रही कब भारत में, सभ्यता-शांति-सद्भावों की

    पर नए पड़ोसी कुछ ऐसे, पागल हो रहे सिवाने पर

    इस पार चराते गौएँ हम, गोली चलती उस पार से

    राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    तुम उड़ा कबूतर अंबर में, संदेश शांति का देते हो

    चिट्ठी लिखकर रह जाते हो, जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो

    वक्तव्य लिखो कि विरोध करो, यह भी काग़ज़ वह भी काग़ज़

    कब नाव राष्ट्र की पार लगी, यों काग़ज़ की पतवार से

    राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    तुम चावल भिजवा देते हो, जब प्यार पुराना दर्शाकर

    वह प्राप्ति-सूचना देते हैं, सीमा पर गोली-वर्षा कर

    चुप रहने को तो हम चुप रहें कि मरघट शरमाए

    बंदूक़ों से छूटी गोली, कैसे चूमोगे प्यार से

    राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    मालूम हमें है तेज़ी से निर्माण हो रहा भारत का

    चहुँ ओर अहिंसा के कारण, गुणगान हो रहा भारत का

    पर यह भी सच है, आज़ादी है तो चल रही अहिंसा है

    वर्ना अपना घर दीखेगा, फिर कहाँ कुतुबमीनार से

    राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    स्वातंत्र्य निर्धन की पत्नी कि पड़ोसी जब चाहे छेड़े

    यह वह पागलपन है जिससे शेरों से लड़ जातीं भेड़ें

    पर यहाँ ठीक इसके उल्टे, हैं भेड़ छेड़ने वाले ही

    फिर क्यों रखते वंचित हमको, निज स्वाभाविक हुंकार से

    राही दिल्ला जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    नहरें फिर भी खुद सकती हैं, बन सकती है योजना नई

    जीवित हैं तो फिर कर लेंगे, कल्पना नई, कामना नई

    घर की है बात, यहाँ ‘बोतल’ पीछे भी पकड़ी जाएगी

    पहले चलकर सीमा पर सर झुकवा तो लो संसार से

    राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    फिर कहीं गुलामी आई तो, क्या कर लेंगे हम निर्भय भी

    स्वातंत्र्य-सूर्य के साथ अस्त हो जाएगा सर्वोदय भी

    इसलिए मोल आज़ादी का नित सावधान रहने में है

    लड़ने का साहस कौन करे, फिर मरने को तैयार से

    राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    तैयारी को भी तो थोड़ा चाहिए समय, साधन, सुविधा

    इसलिए जुटाओ अस्त्र-शस्त्र, छोड़ो ढुलमुल मन की दुविधा

    जब इतना बड़ा विमान तीस नखरे करता तब उड़ता है

    फिर कैसे तीस करोड़ समर को चल देंगे बाज़ार से

    राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    हम लड़ें, नहीं, प्रण तो ठानें, रण-रास रचाना तो सीखें

    होना स्वतंत्र हम जान गए, स्वातंत्र्य बचाना तो सीखें

    वह माने सिर्फ़ नमस्ते से, जो हँसे-मिले, मृदु बात करे

    बंदूक़ चलाने वाला माने, बंबारों की मार से

    राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़

    सब कुछ हैं तरु-डाली पत्ते, आज़ादी है बुनियादी-बीज

    इसलिए वेद-गीता-क़ुरान, दुनिया ने लिक्खे स्याही से

    लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से

    राही दिल्ली जाना तो, कहना अपनी सरकार से

    स्रोत :
    • पुस्तक : संकलित कविताएँ (पृष्ठ 122)
    • संपादक : नंदकिशोर नंदन
    • रचनाकार : गोपाल सिंह नेपाली
    • प्रकाशन : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
    • संस्करण : 2013

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