मरण-त्योहार

marn tyohar

गोपालदास नीरज

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मरण-त्योहार

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    पथिक! ठहरने का ठौर जग, खुले पड़े सब द्वार

    और डोलियों का घर-घर पर लगा हुआ बाज़ार

    जन्म है यहाँ मरण-त्योहार।

    देख! धरा की नग्न लाश पर नीलाकाश खड़ा है

    सागर की शीतल छाती में ज्वालामुखी जड़ा है

    सूर्य उठाए हुए चाँद की अर्थी निज कंधों पर

    और कली के सम्मुख उपवन का कंकाल पड़ा है

    खा-खाकर निज आयु जी रही जीवन की वैदेही

    रे! विष पीकर नहीं, अमृत पीकर मरता संसार

    जन्म है यहाँ मरण-त्योहार।

    आँजे हुए नींद का काजल सब अँखियाँ कजरारी

    आलिंगन कर रहीं मृत्यु का बाहें प्यारी-प्यारी

    कोई कहीं रहे पर सबकी मंज़िल एक यहाँ पर

    रे! मरघट की ओर मुड़ी हैं राहें जग की सारी

    एक दिवस आती है सबके जीवन में मजबूरी

    और एक दिन मिट्टी सबका करती है शृंगार

    जीवन है यहाँ मरण-त्योहार।

    काल-तिमिर के नागपाश में बंदी किरन-परी है

    और फ़ूल के नन्हे से दिल पर चट्टान धरी है

    घिरी आग की लाल घटाएँ तरु-तरु पर उपवन के

    पात-पात पर अंगारों की धूप-छाँह छितरी है

    नीड़-नीड़ पर वज्र-बिजलियों की आँधी मँडराती

    तृण-तृण में करवटें ले रहा मरुस्थल का पतझार

    जन्म है यहाँ मरण-त्योहार।

    लिए गोद में नाश, मर रही कर यहाँ अमरता

    घृणित चिता की राख छिपाए जग भर की सुंदरता

    दबा लकड़ियों के नीचे पुरूषार्थ पार्थ का सारा

    अरे! कृष्ण पर क्षुद्र बधिक का तीर व्यंग्य सा करता

    हाय! राम का शव सरयू में नंगा तैर रहा है

    सीता का सिंदूर अवध में करता हाहाकार

    जन्म है यहाँ मरण-त्योहार।

    लगा हुआ हर एक यहाँ जाने की तैयारी में

    भरी हुई हर गैल, चल रहे पर सब लाचारी में

    एक-एक कर होती जाती ख़ाली सभी सराएँ

    एक-एक कर बिछुड़ रहे सब मीत उमर बारी में

    और कह रही रो-रो कर हर सूनी सेज अटारी

    सदियों का सामान किया क्यों रहना था दिन चार?

    जन्म है यहाँ मरण-त्योहार।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गीत जो गाए नहींं (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : गोपालदास नीरज
    • प्रकाशन : डायमंड पॉकेट बुक्स
    • संस्करण : 2019

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