मेरे नापिताचार्य

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गुलाब राय

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    मैं जन्म से वैष्णव हूँ। सभामध्ये ही नहीं, वरन अंत:करण से भी वैष्णवता का पालन करता हूँ। जैनी मेरे पड़ोसी और मित्र हैं। खद्दर और चर्खा को छोड़कर जिनको मैं पहले अँग्रेज़ी राज्य में भयवश और अब आलस्यवश नहीं अपना सका, महात्मा गाँधी का अनन्य भक्त हूँ। इस प्रकार मैं करेला और नीम चढ़ा ही नहीं, वरन त्रिधाशुद्ध 'अहिंसा परमोधर्म:' का अनुयायी हूँ। इसलिए रक्तपात से, चाहे अपना हो या पराया, मैं सदा बचता रहा हूँ। मधुमेही होने के कारण मुझे अंगक्षतों के सदोष हो जाने की सदा आशंका बनी रहती है, इसलिए भौतिक विवशता को धर्म मानकर मैं अपने को रक्तपात से बचाए रखने की ओर विशेष ध्यान रखता हूँ। इसी भय से सांप्रदायिक झगड़ों के पास नहीं फटकता। फिर भी जब मैं आधुनिकतम सुशिक्षित लोगों के अनुकरण में 'स्वयंसेवक' वृत्ति को धारण किए हुए था और 'स्वयं दासाः रतपस्विनः' की श्रेणी में आने के लिए प्रयत्नशील रहता था, तब मैं अपने को स्व-रक्तपात से नहीं बचा सका। अभी तक अख़बारी विज्ञापनों का नित्य स्वाध्याय और पारायण करने पर भी मेरी जानकारी में ऐसा कोई अकौशलोपेक्षक, सुरक्षापूर्ण क्षौरयंत्र नहीं आया है, जो मुझ जैसे मूर्ख और अकार्यकुशल व्यक्ति को चुनौती दे सके। रक्तपात के भय से ही वैदिक लोग मुंडन संस्कार से पूर्व छुरे की प्रार्थना किया करते थे। जिलेट से लगाकर ढाई आने तक के उस्तरों को मैंने आज़माया, किंतु वे मुझे अपने रक्तपात से बचाने में उतने ही असमर्थ रहे, जितनी कि यू० एन० ओ० की सुरक्षा-परिषद राष्ट्रों को रक्तपात से बचाने में। बाल वीरवधूटी सी एक-आध रक्त बिंदु मेरे मुख-मंडल पर झलक ही आती थी और मेरे शरीर में रक्तकोष मेरे बैंक के धन-शेष से अधिक संपन्न नहीं है। इसीलिए अपने जीवनकाल में ही अपने सेफ्टीरेज़र का उत्तराधिकार अपने द्वितीय पुत्र को, जो डॉक्टर है, प्रसन्नतापूर्वक सौंप दिया है। 'अंतहु तोहि तजैगे पामर, तू काहे तज अब ही ते' के गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा प्रतिपादित वैराग्यपूर्ण उपदेश को मैंने कम से कम एक वस्तु के संबंध में सवा सोलह आने रूप से अपना लिया है।

    मैं उन स्वच्छतावादियों में से नहीं हूँ, जो अपने मुख-मंडल पर एक रात की उपज को सहन नहीं कर सकते और चाणक्य की तत्परता से नित्यप्रति उसका मूलोच्छेदन करते हैं। मैं चेहरे की वास्तविक स्याही की अपेक्षा आलंकारिक स्याही से बचने की अधिक चेष्टा करता हूँ। अब तो भगवान ने बालों की कालिमा को भी दूर कर दिया है। भगवान की बिना परिश्रम की देन को यदि मैं अपने खालसा भाइयों की भाँति सर-माथे रखकर अपनाता नहीं हूँ, तो उसका अत्यंत तिरस्कार भी नहीं करता। मौत की भाँति मैं नाई की बला को टालता रहता हूँ और यदि स्वीकार भी करता हूँ, तो आपत्ति धर्म के रूप में।

    मेरे नापित महोदय श्री बेनीरामजी से मेरा बहुत पुराना परिचय है —कम से कम तब का, जब कि मैं सेकंड ईयर में पढ़ता था। वे भी मेरी तरह से अर्द्ध-प्राचीनतावादी जिजमानी-वृत्ति करनेवाले नाइयों में से हैं। नाई शब्द अरबी में भी है। वहाँ वह मौत की ख़बर लाने वाले का बोधक है। शायद अरब के लोगों को यहाँ के लोगों की अपेक्षा क्षौरकार का कम काम पड़ता है, इसीलिए उसके नाम से ऐसे अशुभ संस्कार लगे हुए हैं। हमारे यहाँ तो वह जन्म की मंगल दूब भी लेकर जाता है। मालूम नहीं, हमारा नाई शब्द अरबी के नाई की संतान है अथवा उसका जन्म संस्कृत 'नापित' से 'प' और 'त' के लोप से हुआ है! हमारे बेनीरामजी जब दूसरे, चौथे, आठवें दिन अतिथि की भाँति दर्शन देते हैं, तब वे प्रातःकाल ही अपने मस्तक पर स्नान-ध्यानकर लेने का चंदन-कुंकुम का मंगलमय प्रमाणपत्र लेकर आते हैं और अपने शुद्ध संस्कृत 'नापित' नाम के व्युत्पत्त्यर्थ को (स्नापितः अर्थात् स्नान कराया हुआ, क्योंकि पूर्वकाल में क्षौरकर्म कराने से पूर्व नाई को नहला लिया जाता था) शब्दशः सार्थक करते हैं। मालूम नहीं, पुराने जमाने के लोगों को नाइयों से क्या बैर था, जो यह लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गई- 'नराणां नापितो धूर्तः पक्षिरणां वायसः।' हमारे नापितदेव तो अपनी सज्जनता से इस कथन को शशश्रृंगवत् मिथ्या और अप्रामाणिक सिद्ध कर देते हैं।

    भूतभावन भगवान शंकर जिस प्रकार स्वयं दिगंबर, विरूप और कपाली रहकर भी दूसरों को श्री और संपदा प्रदान करते हैं, ठीक उसी प्रकार बेनीरामजी अपने बाल बढ़ाए रखकर भी दूसरों के मुख-मंडलों पर पालिश द्वारा उनकी श्रीवृद्धि किया करते हैं। कभी-कभी जब किसी पार्टी आदि में जाना होता है, तो वे भगवान के वरदान स्वरूप 'करुणा में वीर रस’ की भाँति उपस्थित हो जाते हैं ओर कभी वे मास-पखवारे की गणना को अपने मन से बिलकुल भुला देते हैं।

    मेरे नापितदेव तो वामन ही हैं और विशालकाय। मेरी बुद्धि की भाँति ये भी मध्य श्रेणी के हैं, और कुछ लघुता की ओर झुके हुए हैं। जैसा उनका मुख, वैसी उनकी छोटी मूँछे और आँखें हैं। उनका छोटे अंडाकार शीशेवाला, डेढ कमानी का चश्मा उनके गांभीर्य और वार्द्धक्य को बढ़ाता रहता है। जैसे मैं अपनी पोशाक की व्यवस्था सम्हालने में असफल रहता हूँ, वैसे ही वे अपनी पेटी को व्यवस्था सुधारने में असमर्थ रहते हैं, क्योंकि वह पेटी उनके स्वरूपानुरूप है। पेटी का आवरण-पट, जो बाल कटानेवाले यजमानों का भी बालवर्मा से सुरक्षित रखने में रक्षाकवच बनता है, साबुन के प्रयोग से उतना ही अछूता रहता है, जितना कि आजकल का विद्यार्थी भगवन्नाम से! उसको स्वच्छ रखने के उपदेश उनके ऊपर उतना ही प्रभाव रखते हैं, जितना कि 'कामो वचन सती मन जैसे: फिर भी में उनका स्वागत करता हूँ, क्योंकि वे मुझे स्व-रक्तपात से बचाए रखते हैं। बाल तो (कान नहीं) ये बड़े-बड़े आदमियों के भी काटने का गौरव रखते हैं। बड़े-बड़े आदमी भी रुपया बचाना चाहते हैं। नाई की दूकान पर जाने में उनकी शान घटती है और अच्छे नाई को घर पर बुलाने में जेब कटती है। हाँ, तो बेनीरामजी बाल काटने में अपने को किसी से कम नहीं समझते। किंतु उस कला में उनकी गति उतनी ही है, जितनी कि मेरी बंगला बोलने में (बंगाल पहुँच जाऊँ तो भूखा-प्यासा नहीं मरुँगा)। उनकी बाल काटने की कला में मुझे इससे अधिक योग्यता की आवश्यकता भी नहीं, क्योकि भगवान ने मुझे निर्धनी रखकर भी खल्वाट बना रक्खा है। किंतु जब कभी छठे-छमाहे किसी प्रकार वे मुझको बाल काटने को राज़ी कर लेते हैं, तो आध घंटे तक पीछा नहीं छोड़ते। मेरे अवकाशाभाव की बात की इतना ही सत्य समझते है जितना कि लेखक लोग लौटाए हुए लेख पर 'स्थानाभाव के कारण सधन्यवाद वापस को हृदयद्रावक संपादकीय नोट को।

    साधारण शेव में भी बेनारामजी कलाकार का कर्तव्य और उत्तरदायित्व निभाना चाहते हैं। एक बार में शेव में उनका संतोष नहीं होता है। वे सर्च कर्मयोगी है, जब तक मन भरकर अपनी कला का प्रदर्शन कर लें, तब तक ये अपने को कृत्कार्य नहीं समझते। पैसे से उनको मतलब अवश्य रहता है, किंतु यजमान की इच्छा के विरुद्ध भी, जब तक काम पूरा कर लें, तब तक वे अपने को कर्तव्यच्युत समझते हैं। भले आदमी की जबान की भाँति मैं शेव भी दो बार नहीं चाहता, किंतु मेरे नापित महोदय इसको मेरी सबसे बुरी आदत समझते हैं। कभी-कभी मुझे उनकी इस बात से संतोष होने लगता है कि यदि मुझमें सबसे बुरी आदत यही है, तो वास्तव में भला आदमी हूँ। जब कभी उनका उस्तरा भौंहों की साज-सम्हाल की ओर अपने आक्रमणकारी पग बढ़ाता है, तब समय के उस दुरुपयोग पर मुझे सात्विक क्रोध जाता है और भगवान से 'त्राहि माम्। त्राहि माम्!' की पुकार कर मैं प्रार्थना करने लगता हूँ कि 'हे ईश्वर, मुझे ऐसे कर्तव्यपरायण कलाकारों से परित्राण दे!' वे इस क्रोध को सच्चे तपस्वी की भाँति क्षमा कर देते हैं। 'क्षमारूपं तपस्विनाम्।'

    अपनी जाति के अन्य व्यक्तियों की भांति वे भी चलते-फिरते समाचार-पत्र हैं और चूँकि मैं कोई स्थानीय पत्र नहीं खरीदता, मैं उनकी इस वृत्ति का स्वागत करता हूँ। विशेषकर सांप्रदायिक झगड़ों के दिनों में उनकी यह सेवाएँ बहुमूल्य थीं।

    मैं चाहता हूँ कि उनमें कुछ सुधार हो, किंतु वे चर्चिल की भाँति अपरिवर्तनवादी हैं। 'कारी कामर चढ़े दूजो रंग'। मैं भी उनको अपने दोषों की भाँति 'अंगीकृतं सुकृतिनः परिपालयंति’ के न्याय से अपनाए हुए हूँ। मुझसे जिजमान तो उनके लिए बहुत से हैं, किंतु मुझे इतना सुलभ नाई कठिनता से मिलेगा। वे मुझे राजामंडी तक के यातायात के कष्ट और नाई के सेलून की प्रतीक्षा की झंझट से बचाए रखते हैं। इसीलिए उनमें सफाई की अव्यवस्था होते हुए भी कविकुल-गुरु कालिदास की 'एकोहि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जततींदो: किरणेष्विवांग' वाली बड़े-बड़ों की कलंकमोचनी उक्ति के आधार मैं उस अवगुण की उपेक्षा कर देता हूँ और निस्संकोच मैं उनसे कह देता हूँ कि हमसे तुमको बहुत हैं, तुमसे हमको नाहिं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी निबंध की विभिन्न शैलियाँ (पृष्ठ 134)
    • संपादक : मोहन अवस्थी
    • रचनाकार : गुलाबराय
    • प्रकाशन : सरस्वती प्रेस
    • संस्करण : 1969

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