मरुस्थल की लीला

marusthal ki lila

अमृता प्रीतम

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मरुस्थल की लीला

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    एक गहरी शाम थी

    वह रेत के टीले पर बैठी

    अँधेरे का तागा

    उँगलियों पर लपेटती रही...

    फिर ऊपर आसमान पर

    एक तारा चमका

    और रोशनी की किरण को

    वह देह पर मलती रही...

    दूर अँधेरे की घाटी से

    कुछ घंटियों की आवाज़ आई

    कि जैसे एक डाची (ऊँटनी)

    किसी सफ़र पर चली हो

    वह टीले से उतर आई

    घंटियों की सीध में खड़ी हुई तो लगा—

    कोई बात थी

    जो इस राह से गुज़र रही हो...

    ये मरुस्थलों की लीला

    चाँद की कतरन ने देखी

    और वह जो, रेगिस्तान में खड़ी थी

    खड़ी-सी रह गई,

    और अँधेरे स्थलों की ओर से—

    जो एक डाची आई थी

    वह घुटनों के भार

    उसके पैरों में बैठ गई...

    उसकी काँपती हथेली ने

    डाची के बदन को छुआ

    डाची ने गर्दन हिलाई

    तब नहीं मालूम, वह क्या था

    जो घंटियों में टुनका

    और किसी काल का स्मरण

    किसी ने हल्के से

    छाती पर छिटका...

    वह डाची पर बैठी, तब एक विरह का दुख

    उसके पैरों तले पाँव की रेत-सा झड़ने लगा,

    चाँद की कतरन ने जादू बिछाया

    तो दूर कितने ही साए

    कुछ दौड़ते-हाँफते नज़र आए

    और उसके कलेजे की तरह

    रेत का दिल डूबने लगा...

    एक सोच उसके मस्तक से टकराई—

    कि उत्तर दिशा की ओर

    कुछ झाड़ियों के पीछे

    एक पानी का छप्पड़ है,

    और उस प्यासी ने,

    जब डाची को उस दिशा में मोड़ा

    तब वह बिना नकेल की डाची

    दक्षिण दिशा की ओर भागी...

    रेत के गुबार उठते रहे

    वे कभी डाची से आगे भागते,

    कभी पीछे से ऐसे आते

    जैसे डाची का निशान तलाश रहे हों,

    और कोई-कोई यूँ दिखते

    कि उसे पहचाने हुए लगते

    वह याद की मुट्ठी भरती

    तब मुट्ठी से रेत की तरह फिसल जाते...

    एक जगह लगा कि कोई

    कुछ रेत में दबा रहा है

    और रेत की एक क़ब्र के पीछे

    वह ख़ुद भी छुप रहा,

    और दूर कोई और नज़र रहा था

    शायद कुछ बताना चाह रहा था

    जो रेत पर उँगलियों से

    जाने कितना कुछ लिख रहा...

    इतने में एक आफ़त-सी

    एक बवंडर की तरह आई

    और झपट कर उसे

    डाची से उतारने लगी

    तब डाची ने ज़ोर से गर्दन हिलाई...

    एक घंटी चीख़ की तरह बजी

    और कहीं से एक साया आया,

    उसने बाज़ुओं को आगे किया

    और डाची वाली को थाम लिया...

    सुन डाची वाली!

    कानों के पास से एक पवन सरकी

    और टूटी रही आवाज़ में

    कहने लगी—

    ये कई जन्मों की स्मृतियाँ

    अगर किसी ने घंटियों से बाँध दीं

    यह मरुस्थल की लीला

    कुछ खोल देगी

    पर तुम्हारी यह बिन नकेल की डाची

    तुम्हें मरुस्थल में भटका देगी...

    यूँ मरुस्थल में नहीं जाते

    उस पवन ने कानों में कहा

    पहले तो पर्वतों पर जाते हैं

    अंतर का दीया जगाते हैं

    और रूठे हुए

    फ़क़ीर को मनाते हैं

    वह डाची को चंदन चराता है

    आसमान का पानी पिलाता है

    और अपने हाथों से

    डाची को नकेल डालता है...

    यह चेतना की एक किरन थी

    जो उसके मस्तक को छुई

    तब अपने वजूद के

    स्थलों में चलती

    पगडंडी पर चढ़ने लगी,

    ऊपर पहाड़ से

    एक महक रही थी

    जो उसके पीर का

    कुछ पता देती थी

    और उसने देखा

    कि उसके पीछे-पीछे

    उसकी डाची भी चली रही थी

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैं तुम्हें फिर मिलूँगी (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : अमृता प्रीतम
    • प्रकाशन : कृति प्रकाशन
    • संस्करण : 2014

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