हिंदी-उपन्यास लेखकों को उलाहना

hindi upanyas lekhkon ko ulahna

काशीप्रसाद जायसवाल

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हिंदी-उपन्यास लेखकों को उलाहना

काशीप्रसाद जायसवाल

और अधिककाशीप्रसाद जायसवाल

    संप्रति हिंदी भाषा में उपन्यासों की बड़ी भरती देख पड़ती है। इनमें से अधिकांश बंग भाषा के उपन्यासों के अनुवाद हैं। हिंदी के मूल उपन्यासों की गणना बहुत थोड़ी है बल्कि यों कहा जाए कि मूल उपन्यास का अभाव है, तो फब सकता है। उन अनुवादित उपन्यासों में भी कुछ ऐसे घिनौने हैं कि उनका गंगाजी में प्रवाह कर देना ही श्रेय है। केवल नागरी अक्षरों में उपन्यास (या कोई पुस्तक) लिखे जाने से वह 'हिंदी उपन्यास' या 'हिंदी पुस्तक' नहीं कहा जा सकता। एकाध हिंदी उपन्यास-लेखक विद्वान रेनाल्डस साहेब की बराबरी करना चाहते हैं और उन्हीं के पुस्तकों से खींच-खींच कर चोरी-चमारी कर बड़े-बड़े पोथे रंग डालते हैं, किंतु उनका करतब ही उनको रेनाल्डस उपन्यासों का समझने वाला बतला देता है।

    हमारे देश का कूड़ा-करकट रेनाल्डस अनुकरणशील लेखकों के भ्रष्ट-चरित्रकारक नष्ट उपन्यासों से देश का वैसा ही बिगाड़ है जैसा पारसी थिएटर तथा उर्दू के क़िस्सों की क़िताबों से है। वरन मैं समझता हूँ उससे भी बढ़कर अपकार हो रहा है। हिंदी के मूल उपन्यासों की तो यह दशा है, अब बंग भाषा से अनुवादित उपन्यासों की ओर ध्यान दीजिए। इन उपन्यासों की भाषा तो निःसंदेह अच्छी होती है और किसी-किसी के विषय और रचना भी सराहनीय हैं, किंतु ऐसे ग्रंथ गिने गिनाए चार ही पाँच होंगे। शेष में से विषय निकृष्ट होने के कारण कितने तो ऐसे नष्ट हैं, कि 'रद्दी' से कुछ ही भले कहे जा सकते हैं।

    बंगदेशीय लेखक अपने उपन्यासों में भारतवर्षीय पात्र और स्थान रखते हैं और उनमें विलायती रीति-नीति भरकर हिमालय और सहरा के दृश्यों को एक में मिला एक अद्भुत अपूर्व दृश्य रच डालते हैं। और जब उन्हीं पुस्तकों पर हमारे हिंदी लेखकों की लेखनी फिरती है तो फिर क्या पूछना है, एक और भी अनोखी छवि खिंच जाती है। “एक तो तित लौकी दूसरे चढ़ी नीम।

    दो-चार को छोड़कर प्रायः सभी बंग भाषा से अनुवादित उपन्यासों में एक प्रायिक या सामान्य दोष है और उसी दोष के लिए हमारा उलाहना है। वह महादोष यह है, मुसलमानों के चरित्र का ऐसा चित्र खींचना कि जिससे यह भाव होने लगे कि संसार के मनुष्य जाति भर में सबसे नीच, दुष्ट, अत्याचारी, विश्वासघातक ये ही होते हैं, सभी अवगुण और पापों के मुसलमान अवतार हैं! पृथ्वी-तल पर किसी विशेष जाति संप्रदाय के जनमात्र या दुष्ट या पापी नहीं हो सकते, सबों में अच्छे और बुरे होते हैं।

    हिन्दू-मुसलमानों में मेल कराना तो दूर रहा, इस प्रकार दिन-दिन दोनों में परस्पर घृणा और द्वेष बढ़ाया जा रहा है। देश का अहित करने वालों में यों उपन्यास लेखकों का भी साझा है।

    हमारे उपन्यास लेखक जी! आप समझते होंगे कि बुझे-बुझाए हिंदुओं में आप जोश डालकर बड़ा उपकार कर रहे हैं, किंतु तनिक ध्यान देने से आप जान जाएँगे कि आप कैसा बड़ा उपकार कर रहे हैं। आपके जोश दिलाने से कुछ भी लाभ है? लाभ होना तो दूर रहे उलटी हानि है। जोश दिलाइए और हिंदू अपना ही लोहू पिया करें। इसके अतिरिक्त वे कर ही क्या सकते हैं? दोनों दलों में बड़े परिश्रम से यदि प्रीति भाव जमाया भी जाए तो आप उसे लवण सदृश हो, फाड़कर अलग कर देते हैं। शाबाश! देश के हितैषियों शाबाश! साधु विचारशील उपन्यास लेखकों साधु! तुम धन्य, हम भी धन्य हैं क्योंकि हम आपके देश भाई कहलाने का गौरव रखते हैं।

    भाइयों! यदि एक दल के लोग अपने दूसरे दल के प्रति घृणा करने की बुरी प्रकृति छोड़ दें, तो कुछ दिनों में दूसरे दल वाले भी उनकी तरफ स्वच्छ हृदय हो जाएँ। एक हाथ से ताली नहीं बजती।

    प्रशंसा! ‘निस्सहाय हिंदू' के लेखक की है, जिसने पंद्रह-सोलह वर्ष की छोटी अवस्था में अपने उपन्यास में एक ऐसा उत्कृष्ट पात्र मुसलमान का रखा, कि जिसकी सृहृदयता, सौजन्य, सद्गुण और हिंदी मित्र पर प्रेम का वृत्तांत पढ़ कर अश्रुधारा नहीं रुक सकती। हमारे देश हितैषी, उपन्यास लेखको! आपसे यह हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि ऐसी चेष्टा किया कीजिए जिससे हिंदू-मुसलमान दोनों दिल से मिल जाएँ। आपकी लेखनी में बड़ी शक्ति है, आप जो चाहें कर सकते हैं।

    उपन्यास लिखना कोई बुरी बात नहीं है। यदि ‘उपन्यास’ लिखा जाए, तो उपन्यास से संसार में जितना हित और उपकार साधन हो सकता है उतना और किसी प्रकार की पुस्तक से होना कठिन है। इससे मनुष्य घोर पापी से देवता में परिणत हो सकता है और तुर्रा यह कि बिना कोई कठिन परिश्रम के ही।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी प्रदीप (पृष्ठ 43)
    • रचनाकार : काशीप्रसाद जायसवाल
    • संस्करण : जनवरी 1899

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