हिंदी-उपन्यास

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नगेंद्र

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हिंदी-उपन्यास

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और अधिकनगेंद्र

    कुछ दिनों से हिंदी उपन्यास पर एक लेख लिखने का भार मन पर झूल रहा था। कल रात को उसी की रूपरेखा बना रहा था। कभी प्रवृत्तियों के आधार पर वर्गीकरण की बात सोचता, कभी समस्याओं के, और कभी टेक्निक के आधार पर। रूपरेखा कुछ बनती भी थी। परंतु परसों शाम ही को सुना हुआ जैनेंद्र जी का यह वाक्य गूंज उठता था कि तुम लोग, यानी पेशेवर आलोचक (और उनका यह विशेषण मुझ जैसे लोगों को ही नहीं, आचार्य शुक्ल, डॉक्टर ब्रैडले जैसे आलोचकों को भी आलिंगन-पाश में बाँधने के लिए अपनी विशाल बाँहें फैलाए हुए था।) लेखकों की आत्मा को पहचानने का प्रयत्न नहीं करते, बल्कि उसपर अपना ही मत थोपते रहते हो। अंत में मेरे मन में एक बात आई : क्यों एक मूलग्राही प्रश्नावली द्वारा उपन्यासकारों से मिलकर अपने-अपने उपन्यास-साहित्य के विषय में उन सभी के दृष्टिकोण जान लूँ, और फिर उन्हें ही मनोविश्लेषण के आधार पर संश्लिष्ट कर एक मौखिक लेख तैयार कर लूँ? यह विचार कुछ और आगे बढ़ता हुआ परंतु एक समस्या आकर खड़ी हो गई कि यह सब इतनी जल्दी कैसे हो सकता है, और फिर हिंदी के सभी प्रतिनिधि उपन्यासकारों से मिलने के लिए तो इहलोक ही नहीं परलोक की भी यात्रा करनी पड़ेगी। लेख की मौलिकता, उसके द्वारा हिंदी आलोचना में एक नई दिशा प्रशस्त करने का लोभ अथवा और कुछ भी कम-से-कम इस दूसरे उपाय का प्रयोग करने के लिए मुझे राज़ी कर सका। अंत में मानसिक श्रम से थककर मैं सो गया।

    रात को मैंने देखा कि एक बृहत् साहित्यिक समारोह लगा हुआ है। साहित्य-सम्मेलन का अधिवेशन तो नहीं क्योंकि उसमें इस प्रकार के नगण्य विषयों के विवेचन का लोगों को कम ही अवसर मिलता है। पर कुछ भी हो, मैंने देखा, उसी समारोह के अंतर्गत उपन्यास अंग को लेकर विशिष्ट गोष्ठी का आयोजन हुआ है, जिसमें हिंदी के लगभग सभी उपन्यासकार उपस्थित हैं। पहले उपन्यास के स्वरूप और कर्त्तव्य-कर्म को लेकर चर्चा चली। कर्त्तव्य-कर्म के विषय में यहाँ तक तो सभी सहमत हो गए कि जो साहित्य का कर्तव्य-कर्म है वही उपन्यास का भी, अर्थात् जीवन की व्याख्या करना। पहले श्रीयुत् देवकीनंदन खत्री का इस विषय में मतभेद था, परंतु जब 'व्याख्या' के साथ 'आनंदमयी' विशेषण जोड़ दिया तो वे भी सहमत हो गए। स्वरूप पर काफी विवाद चला। अंत में मेरे ही समवयस्क से एक महाशय ने प्रस्ताव किया कि इस प्रकार तो समय भी बहुत नष्ट होगा और कुछ सिद्धि भी नहीं होगी। हिंदी के सभी प्रतिनिधि उपन्यासकार उपस्थित हैं, अच्छा तो यदि वे एक-एक करके बहुत ही संक्षेप में उपन्यास के स्वरूप और अपने उपन्यास-साहित्य के विषय में अपना-अपना दृष्टिकोण प्रकट करते चलें। उपन्यास के स्वरूप और हिंदी-उपन्यास के विवेचन का इससे सुंदर ढंग और क्या हो सकता है। प्रस्ताव काफी सुलझा हुआ था। फलतः सभी ने मुक्त कंठ से उसे स्वीकार कर लिया। विवेचन में एकता और एकाग्रता बनाए रखने के विचार से उन्हीं सज्जन ने तत्काल एक प्रश्नावली भी पेश कर दी, जिसके आधार पर उपन्यासकारों से बोलने की प्रार्थना की जाए। उसमें केवल तीन प्रश्न थे :

    1. आपके मत में उपन्यास का वास्तविक स्वरूप क्या है?

    2. आपने उपन्यास क्यों लिखे हैं?

    3. अपने उद्देश्य में आपको कहाँ तक सिद्धि मिली है?

    यह प्रश्नावली भी तुरंत स्वीकृत हो गई और प्रस्तावकर्ता से कह दिया गया कि आप ही कृपा करके इस कार्यवाही को गति दीजिए। अस्तु!

    सबसे पहले उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद जी से शुरू किया जाता, लेकिन प्रेमचंद जी ने सविनय एक ओर इशारा करते हुए कहा “नहीं, नहीं, मुझसे पहले मेरे पूर्ववर्ती बाबू देवकीनंदन खत्री से प्रार्थना करनी चाहिए। देवकीनंदन जी हिंदी के प्रथम मौलिक उपन्यासकार हैं। प्रेमचंद जी के आग्रह पर एक सामान्य-सा व्यक्ति, जिसकी आकृति मुझे स्पष्टतः याद नहीं, धीरे से खड़ा हुआ और कहने लगा “भाई, आज तुम्हारी दुनिया दूसरी है, तुम्हारे विचारों में दार्शनिकता और नवीनता की छाप है। हम तो उपन्यास को कल्पित कथा समझते थे। इसके अतिरिक्त उसका कुछ और स्वरूप हो सकता है, यह हमारे ध्यान में नहीं आता था। मैंने स्वदेश-विदेश की विचित्र कथाएँ बड़े मनोयोग से पढ़ी थीं और उनको पढ़कर मेरे दिल में यह आया था कि मैं भी इसी प्रकार के अद्भुत कथानक लिखकर जनता का मनोरंजन करके यश-लाभ करूँ। इसीलिए मैंने 'चंद्रकांता संतति' लिख डाली। अद्भुत के प्रति बहुत अधिक आकर्षण होने के कारण मेरी कल्पना उत्तेजना भर सके। बस, वे साहित्य में उत्तेजना की माँग करते थे। इसके अतिरिक्त मनुष्य यह तो सदा अनुभव करता है कि यह जीवन और जगत रहस्यों का भंडार है, परंतु साधारणतः कल्पना की आँखें खुली होने के कारण वह उनको देख नहीं पाता। उसका कौतूहल जैसे इस तिलिस्म के द्वार से टकराकर लौट आता है और उसे यह इच्छा रहती है कि ऐसा कुछ हो जो इस जादूघर को खोल सके। मेरे उपन्यास मनुष्य की ये दोनों माँगें पूरी करते हैं, उसके मंद जीवन में उत्तेजना पैदा करते हैं और उसकी कौतूहल-वृत्ति की तृप्ति करते हैं। इसलिए वे इतने लोकप्रिय रहे हैं। असंख्य पाठकों को उनसे जो कहना चाहते थे मिला इससे बढ़कर उनकी या मेरी सिद्धि और क्या हो सकती है? वे जीवन की व्याख्या करते हैं या नहीं, यह मैं नहीं जानता। मैंने कभी इसकी चिंता भी नहीं की परंतु मनोरंजन अवश्य करते हैं। मन की एक भूख को भोजन देते हैं, बस।

    इसके उपरांत मुंशी प्रेमचंद बिना किसी तकल्लुफ़ के आप-ही-आप खड़े हो गए और निहायत ही सादगी और सच्चाई से कहने लगे “भाई, सवाल तुम्हारे कुछ मुश्किल हैं। उपन्यास के स्वरूप या अपने उपन्यास-साहित्य का तात्त्विक विवेचन तो मैं आपके सामने शायद नहीं कर पाऊँगा; पर मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है। मानव-चरित्र कोई स्वतः संपूर्ण तथ्य नहीं है, वह वातावरण सापेक्ष है, इसलिए उसपर वातावरण अर्थात् आज की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं की व्याख्या करता हुआ ही मानव-चरित्र की व्याख्या कर सकता है। लेकिन 'व्याख्या' शब्द को ज़रा और साफ़ करना होगा। व्याख्या से मेरा मतलब सिर्फ स्वरूप, कार्य-कारण वगैरह का विश्लेषण करके उसके भिन्न-भिन्न तत्त्वों को अलग-अलग सामने रख देना नहीं, क्योंकि वह भी उस विशेषण में से कोई जीवनोपयोगी तथ्य निकालकर ही संतुष्ट होता है। उपन्यासकार की व्याख्या तो इससे बहुत अधिक है। वह तो निर्माण की अनुवर्तिका है। मेरा जीवन-दर्शन वैज्ञानिक नहीं है, शुद्ध उपयोगितावादी है। यानी मैं मानता हूँ कि उपन्यासकार का कर्तव्य है कि वह परिस्थितियों के बीच में रखकर मानव-चरित्र का विश्लेषण करके यह समझ ले कि वहाँ क्या गड़बड़ है, और फिर क्रमशः उस अवस्था तक ले जाए जहाँ मैं स्वप्नलोक या स्वर्गलोक की सृष्टि की बात नहीं करता, वहाँ तो वास्तव का आँचल ही आपके हाथ में से छूट जाता है। आज की भौतिक वास्तविकताओं में घिरे हुए मानव-चरित्र का निर्माण इस प्रकार नहीं होगा। परिस्थिति के अनुकूल उसका एक ही मार्ग है और वह है आज के यथार्थ में से ही आदर्श के तत्त्वों को ढूँढकर उसका निर्माण करना। मैं इसी भावना से प्रेरित होकर उपन्यास लिखता हूँ। मेरे उपन्यास कहाँ तक आज के मानव को आत्म-परिष्कार के प्रति, यानी परिस्थितियों के प्रकाश में अपनी ख़ामियों को समझकर उनको दूर करने के लिए जागरुक कर सके हैं, यह मैं नहीं जानता। पर मेरी सिद्धि इसी के अनुपात से माननी चाहिए। मेरा उद्देश्य केवल मनोरंजन करना नहीं है वह तो भाटों और मदारियों, विदूषकों और मसख़रों का... (सहसा बाबू देवकीनंदन खत्री की ओर देखकर एकदम शर्म से लाल होकर फिर ठहाका मारकर हँसते हुए) आशा है आप मेरा मंतव्य ग़लत नहीं समझ रहे हैं।

    प्रेमचंद जी के बाद कौशिक जी खड़े हुए। मुझे अच्छी तरह याद नहीं उन्होंने क्या कहा, पर शायद उन्होंने प्रेमचंद जी की ही बात को दुहराया।

    अब प्रसादजी से प्रार्थना की गई पहले तो वे राज़ी नहीं हुए। परंतु जब लोगों ने विशेष अनुरोध किया तो वे शांत-संयत मुद्रा में खड़े हुए और कहने लगे हिंदी के आलोचकों ने मेरी कविता और नाटकों को रोमांटिक आदर्शवाद की कक्षा में रखा है। और मेरे उपन्यासों को यथार्थवाद की कक्षा में। मैं नहीं कह सकता कि मूलतः मेरे साहित्य के बीच में कोई ऐसी विभाजक रेखा खींची जा सकती है। फिर भी यह सत्य है कि मुझे कविता-नाटक की अपेक्षा उपन्यास में यथार्थ को आँकना सरल प्रतीत होता है। कारण केवल यही है कि वह अपेक्षाकृत सीधा माध्यम है। आज धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विषमताओं के कारण जीवन में जो गहरी गुत्थियाँ पड़ गई हैं, उनसे मैं निरपेक्ष होकर पलायन नहीं कर सकता, आह! यदि यह संभव होता! परंतु प्रेमचंद जी की तरह सामूहिक बहिर्मुखी प्रयत्नों में मुझे उनका समाधान सरलता से नहीं मिलता। जिन संस्थाओं पर समाज बालक की तरह आश्रय के लिए झुकता है वे अंदर से कितनी कच्ची और घुनी हुई हैं? प्रवृत्ति के धक्के को भी संभालने का उनमें बल है? मुझे विश्वास ही नहीं हो सकता कि संस्थाओ का यह नया व्यसन जीवन का किसी भी प्रकार भी गतिरोध कर सकेगा। ऐसा क्या है, जिसके नाम पर प्रवृत्ति को झुठलाया नहीं जाए? और प्रवृत्ति भी क्या सत्य है? यही आज के जीवन का दर्शन है और इसकी पूरी चेतना के साथ अनुभव कर रहा हूँ। यह आपको मेरे संपूर्ण साहित्य में मिलेगा। उपन्यास में प्रतीकों के अधिक परिचित होने के कारण यह शायद अधिक मुखर हो गया है।

    इसके बाद बाबू वृंदावनलाल वर्मा के नाम से एक सज्जन, जिनके सिर पर शोभित फैल्ट कैप उनके परंपरा-प्रेम की दुहाई दे रही थी, उठ खड़े हुए और बोले “भई, उपन्यास को मैं उपन्यास ही समझता हूँ, और बुंदेलखंड के ये ही नदी-नाले, झीलें और पर्वतवेष्टित शस्य-श्यामल खेत मेरी प्रेरणा के प्रधान कारण हैं। इसलिए मुझको हिस्टोरिकल रोमांस पसंद है। अन्य कारण जानकर क्या करियेगा। इसी रोमांटिक वातावरण में बाल्यकाल से मैं अपनी आँखों से चारों ओर एक वीर जाति के जीवन का खंडहर देखता आया हूँ, और अपने कानों से मैंने उनकी विस्मय-गाथाएँ सुनी हैं। अतएव स्वभाव से ही मैं आप-से-आप कल्पना के द्वारा उन दोनों को जोड़ने लगा। वे कहानियाँ इन खंडहरों में जीवन का स्पंदन भरने लगीं और ये खंडहर उन कहानियों में जीवन की वास्तविकता। मैं उपन्यास लिखने लगा। मेरे पास उपन्यास आदि उस गौरव-इतिहास को अपने मन में जगा पाते हैं तो वे सफल ही हैं।

    जिस समय ये लोग भाषण दे रहे थे एक हृष्ट-पुष्ट आदमी, जिसके लंबे-लंबे बाल, अधनंगा शरीर एक अजीब फक्कड़पन का परिचय दे रहे थे, बीच-बीच में काफी चुनौती भरे स्वर में फिकरे कसकर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। पूछने पर मालूम हुआ कि आप हिंदी के निर्द्वंद्व कलाकार उग्र जी हैं। वृंदावनलाल जी का भाषण समाप्त होने पर लोग उनसे प्रार्थना करने ही वाले थे कि आप ही उठ खड़े हुए और बोले “ये लोग तो सभी मुर्दा हो गए हैं। जिसमें जोश ही नहीं रहा वह क्या उपन्यास लिखेगा? और जोश, सुधार, आत्म-परिष्कार के नाम पर अपने को और दूसरों को धोखा देनेवालों में लोगों में कहाँ? जोश आता है नीति की चहारदीवारी को तोड़कर विधि-निषेधों का जी भरकर मजा लेने से। जोश आता है, जिसे ये लोग तामस और पाप कहकर दूर भागते हैं, उनका मुक्त उपभोग करने से, जबकि मनुष्य की सच्ची वृत्तियाँ दमन की शृंखलाएँ तोड़कर स्वच्छंद होकर जीवन का मांसल अनुभव करती हैं। आज यह जोश मैं और मेरे उपन्यास ही दे सकते हैं; जिनके आत्मरूप नायक अवसर आते ही नपुंसक बन जाते हैं, इससे इसकी क्या आशा की जा सकती है? यह कहकर उन्होंने अपने व्यंग्य को और अधिक स्थूल बनाते हुए जैनेंद्र जी की ओर देखकर हँस दिया।

    जैनेंद्र जी पर चोट का असर तो तुरंत ही हुआ और उन्होंने अपने को हतप्रभ नहीं होने दिया। हाथ घुमाकर नर्म चादर से संभाला और एक ख़ास सादगी के अंदाज़ से आँखों को मठराते हुए ऊपर के होंठ से नीचे के होंठ को लपेटकर बोले- “अरे भई, उग्रजी के जोश में उबाल लाने वाली चीज़ हमें कहाँ प्राप्त है, और फिर एक नज़र यह देखकर कि उनके इस हाजिरजवाब का प्रेमचंदजी और सियारामशरण जी पर क्या असर पड़ा है, कहने लगे, “मुझे कुछ... मुझे कुछ ऐसा लगता है कि उपन्यास जैसे आज परिभाषा की मर्यादा तोड़कर विशृंखलित हो गया है उसका स्वरूप जैसे कुछ नहीं और सब-कुछ है। वह कोई भी स्वरूप धारण करता है। आज के जीवन की तरह वह जैसे एकदम अनिश्चित होकर दिशा खो बैठा है। इसीलिए आज के जीवन की अभिव्यक्ति का सच्चा माध्यम उपन्यास ही है, उपन्यास क्यों लिखता हूँ, यह मैं क्या जानूँ? मेरे उपन्यास जैसे हैं वैसे हैं ही, वे बड़े बेचारे हैं। परंतु मुझे मालूम पड़ता है कि मेरे मन में कुछ है जो बाहर आना चाहता है। वह है जीवन की अखंडता की भावना। मुझे अनुभव होता है कि जीवन और जगत जैसे मूलतः एक अखंड तत्त्व है। आज इसकी अखंडता खंडित हुई-सी लगती है, लगती ही है, दरअसल है नहीं। आज का मानव इसी भ्रम में पड़कर भटक रहा है उसके हाथ से जीवन की कुंजी खो गई है, और कुंजी है यही अखंडता की भावना। मैं चाहता हूँ कि वह इसे ढूंढ निकाले, नहीं तो निस्तार नहीं है। और इसे ढूँढने का साधन देना, पीड़ा में ही परमात्मा बसता है। मेरे उपन्यास आत्मपीड़न के ही साधन हैं, और इसीलिए मैंने उनमें कामवृत्ति की प्रधानता रखी है क्योंकि काम की यातनाओं में ही आत्मपीड़न का तीव्रतम रूप है। वे पाठक की जितनी आत्मपीड़न की प्रेरणा देते हैं, जितना उसके हृदय में प्रेम पैदा करके जीवन की अखंडता का अनुभव कराते हैं, उतने ही सफल कहे जा सकते हैं। इतना कहते हुए बड़े ही आहिस्ता से (मानो ऐसा करने में भी किसी प्रकार की हिंसा का डर हो।) वे बैठ गए।

    इसके बाद सियारामशरण जी से प्रार्थना की गई है कि वे अपना मंतव्य प्रकट करें। परंतु उन्होंने बड़े ही दैन्य से कहा “हम क्या कहेंगे, अभी जैनेंद्र भाई ने जैसा कहा है। हमारा भी वैसा ही मत है।

    तब पं. भगवतीप्रसाद वाजपेयी का नंबर आया। अपने गोलाकार मुखमंडल को थोड़ा और गोल करते हुए वे बोले उपन्यास-सम्राट श्रीयुत प्रेमचंदजी और साथियों, मेरे भाई जैनेंद्र जी ने कहा, अभी तक मेरा भी बहुत-कुछ वही मत था। परंतु आज मैं स्पष्ट देखता हूँ (और अंचलजी की ओर देखकर वे अत्यंत गंभीर हो गए, जैसे जो कुछ कहने जा रहे हैं, वह उन्हें अंचलजी के मुख पर साफ़ नज़र रहा है) कि आज के मानव की मुक्ति पीड़ा में नहीं है, जीवन की आर्थिक विषमताओं को दूर करने में है। आज मुझे शरत या गाँधी नहीं बनना, शोलोलोव और स्तालिन बनना है।

    अब वात्स्यायन जी अपना दृष्टिकोण प्रकाशित करें, माँग हुई। वात्स्यायन जी ने अपना वक्तव्य आरंभ कर दिया। परंतु मैं चूँकि थोड़ा दूर बैठा था, मुझे सिर्फ उनके होंठ ही हिलते दिखाई देते थे, सुनाई कुछ नहीं पड़ता था। उग्रजी ने एक बार उनको ललकारा भी “अरे सरकार, जरा दम से बोलिए, आख़िर आप स्वागत-भाषण तो कर नहीं रहे, मजलिस में बोल रहे हैं। पर वात्स्यायन जी पर जैसे उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे उसी स्वर में बोलते रहे। हारकर मुझे भी उनके पास जाना पड़ा। कह रहे थे, ... “या यों कहिए कि आपके सामने मेरा एक ही उपन्यास है। उसमें, जैसा कि मैंने प्रवेश में कहा है, मेरा दृष्टिकोण सर्वथा बौद्धिक रहा है। एक व्यक्ति का पूरी ईमानदारी से अपने राग-द्वेष को सर्वथा पृथक रखकर वस्तुगत चित्रण करना और तज्जन्य बौद्धिक आनंद को स्वयं ग्रहण करना तथा पाठक को ग्रहण कराना मेरा उद्देश्य रहा है। किसी व्यक्ति का विशेषकर उस व्यक्ति को जो अपनी ही सृष्टि हो, चरित्र विश्लेषण करने में अपने राग-द्वेषों को अलग रखते हुए पूरी ईमानदारी बरतना, स्वयं को अपने में एक बड़ी सफलता है। आप शायद यह कहेंगे कि यह व्यक्ति मेरी सृष्टि ही नहीं, मैं स्वयं हूँ और यह विश्लेषण अपने ही व्यक्ति-विकास का विश्लेषणात्मक सिंहावलोकन है। तब तो ईमानदारी और वस्तुगत चित्रण का महत्त्व और भी कई गुना हो जाता है। क्योंकि अपने को पीड़ा देना तो आसान है; पर राग-द्वेषविहीन होकर अपनी परीक्षा करने में असाधारण मानसिक शिक्षण और संतुलन की आवश्यकता होती है, इससे प्राप्त आनंद राग-द्वेष में बहने के आनंद से कहीं भव्यतर है। मैंने इसी को पाने और देने का प्रयत्न किया है। 'शेखर' को पढ़कर आप जितना ही इस आनंद को प्राप्त कर पाते हैं उतनी ही मेरी सफलता है।

    इतने में ही इलाचंद्रजी स्वतः प्रेरित-से बोल उठे “वात्स्यायन जी की बौद्धिक निरुद्देश्यता का यह आनंद कुछ मेरी समझ में नहीं आया। मैं उनके मनोविश्लेषण की सूक्ष्मता और सत्यता का कायल हूँ, परंतु व्यक्ति का विश्लेषण करके उसको एक समस्या बनाकर ही छोड़ देना तो मनोविश्लेषण का दुरुपयोग है। स्वयं फ्रायड ने भी मनोविश्लेषण को साधन ही माना है, साध्य नहीं। चरित्र में पड़ी हुई ग्रंथियों को सुलझाकर वह हमें मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करता है और इस प्रकार व्यक्ति की, फिर समाज की विषमताओं का समाधान करता है। यही आनंद सच्चा आनंद स्वस्थ आनंद है।

    अब लोग थकने लगे थे। मुझे भी मन को एकाग्र रखने में कुछ कठिनाई-सी मालूम पड़ रही थी शायद मेरी नींद की गहराई कम हो रही थी। इसीलिए मुझे सचमुच बड़ा संतोष हुआ जब प्रश्नकर्ता महोदय ने उठकर कहा कि अब देर काफी हो गई है, इतना समय नहीं है कि आज के सभी उदीयमान औपन्यासिकों के अपने मंतव्यों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो सके। अतएव अब केवल यशपाल जी ही अपने विचार प्रकट करने का कष्ट करें।

    यशपाल जी बोले “वात्स्यायन जी की बौद्धिकता को तो मैं मानता हूँ, परंतु उनके इस तटस्थ या वैज्ञानिक आनंद की बात मेरी समझ में नहीं आती। वास्तव में यह वैज्ञानिक आनंद और कुछ नहीं शुद्ध आत्म-रति मात्र है। वात्स्यायन जी घोर व्यक्तिवादी कलाकार हैं। उन्होंने जीवन और जगत को अपने सापेक्षता में देखा और अंकित किया है, जैसे सभी कुछ उनके अहं के चारों ओर चक्कर काट रहा हो। मेरा दृष्टिकोण ठीक इसके विपरीत है। अपनी शक्तियों को अपनी व्यष्टि में ही केंद्रीभूत कर लेना या अपनी व्यष्टि को संपूर्ण विश्व की धुरी मान लेना जीवन का बिल्कुल गलत अर्थ समझना है। आत्म-रति एक भयंकर रोग है। उससे जीवन में विषमयी ग्रंथियाँ पड़ जाती हैं। जीवन का समाधान तो इसी में है कि व्यष्टि के घोंघे से निकलकर समष्टि की इस धूप में विचरण किया जाए। व्यक्ति में उलझे रहने से जीवन की समस्याएँ और उलझ जाएँगी। उनके लिए सामाजिकता अनिवार्य है। व्यक्तियों पर ध्यान केंद्रित करके उनको अनिवार्य महत्त्व देना मूर्खता है। सामूहिक चेतना जाग्रत कीजिए, गणशक्ति का अर्जन कीजिए परंतु इसके साथ ही जैनेंद्र जी के आत्म-निषेध को भी मैं नहीं मानता। जो है उसका निषेध करना बेमानी है और कोई आत्म-निषेध करता है। आत्म-निषेध की सबसे बड़ी बात करने वाले गाँधीजी ही सबसे बड़े आत्मार्थी हैं। अध्यात्मवाद, वैज्ञानिक तटस्थता आदि व्यक्तिवाद के ही विभिन्न नाम हैं। आज हमें आवश्यकता इस बात की है कि भ्रमजाल से निकलकर जीवन की भौतिकता और सामाजिकता को स्वीकार करें। मेरे साहित्य का यही उद्देश्य है।

    गोष्ठी की कार्यवाही अब समाप्त हो चुकी थी। अंत में प्रश्नकर्ता महोदय ने वक्ताओं को धन्यवाद देते हुए निवेदन किया “अभी आपके सामने हिंदी के कुछ प्रतिनिधि उपन्यासकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों की सुंदर विवेचना की है। हिंदी उपन्यास के लिए वस्तुतः यह गौरव का दिन है जबकि हमारे आदि उपन्यासकार से लेकर नवीनतम उपन्यासकार तक (बाबू देवकीनंदन खत्री से लेकर यशपाल तक) सभी एक स्थान पर मौजूद हैं (यद्यपि ऐसा कैसे संभव हो सका, यह सोचकर वक्ता महोदय को बड़ा आश्चर्य हो रहा था।) और उन्होंने स्वयं ही अपने दृष्टिकोणों का स्पष्टीकरण किया है। आपने देखा कि किस तरह इनका दृष्टिकोण क्रमशः बदलता गया है। किस तरह सामंतीय से वह भौतिक-बौद्धिक हो गया है। देवकीनंदन खत्री और यशपाल हमारे उपन्यास-साहित्य के दो छोर हैं। देवकीनंदन जी का दृष्टिकोण, उनके औपन्यासिक मान, शुद्ध सामंतीय हैं। साहित्य या उपन्यास उनके लिए एक जीवित शक्ति नहीं है, वह मनोरंजन का उपभोग का एक उपकरण मात्र है। वह जीवन की व्याख्या और आलोचना करने वाला एक चैतन्य प्रभाव नहीं है, उपभोग-जर्जर जीवन में झूठी उत्तेजना लाने वाली एक खुराक है। शारीरिक उत्तेजना के लिए जिस प्रकार लोग कुश्ती करते थे, मानसिक उत्तेजना के लिए इसी प्रकार के 'तिलिस्म' या 'चंद्रकांता-संतति' पढ़ते थे। इस तरह से उनके उस समय के जीवन के लिए 'चंद्रकांता' उपन्यास एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव था और कम-से-कम उसकी अनंत-विहारिणी कल्पना का लोहा तो सभी को मानना होगा। वह मन को बुरी तरह जकड़ लेती है, यही उसकी शक्ति का असंदिग्ध प्रमाण है। भारतीय जीवन की गति के अनुसार प्रेमचंद तक आते-आते यह दृष्टिकोण बदलकर विवेक और नीति का दृष्टिकोण हो जाता है। उनके लिए उपन्यास सामाजिक जीवन का निर्माण करने वाला एक चेतन प्रभाव है, उपयोगिता और सुधार उसके ठोस उद्देश्य हैं, नीति और विवेक दो साधन। जीवन से उसका घनिष्ठ संबंध है। निदान उनका उपन्यास मानव-जीवन की ऊपरी सतह को छूकर नहीं रह जाता, वह उसके भीतर प्रवेश करता है। परंतु, चूँकि उसकी दृष्टि बहिर्मुखी है, सामाजिक जीवन पर ही केंद्रित रहती है, इसलिए उसकी भी तो पैठ सीमित माननी ही पड़ेगी। नीति और विवेक के प्राधान्य के कारण प्रेमचंद का उपन्यास प्राण-चेतना के आर-पार नहीं देख पाता, विवेक को इसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती। विवेक की आँखें बीच में ही रुक जाती हैं, जीवन के अतल को स्पर्श नहीं कर पातीं। इसीलिए तो प्रेमचंद जी की दृष्टि की व्यापकता, उदारता और स्वास्थ्य का कायल होकर भी मुझे उनमें शरत् या रवि बाबू में बहुत अंतर लगता है। प्रेमचंदजी की इस बहिर्मुखी सामाजिकता को उसी समय प्रसाद, वृंदावनलाल वर्मा और उग्र ने चैलेंज किया, प्रसाद ने निर्मम होकर सामाजिक संस्थाओं का गर्हित खोखलापन दिखाया, वृंदावनलाल ने वर्तमान के इतिवृत्त को छोड़कर अतीत के विस्मय-गौरव की ओर संकेत किया, उग्र ने उनकी उथली नैतिकता को चुनौती दी। परंतु गाँधीवाद के व्यवहार-पक्ष का लोकरुचि पर उस समय इतना अधिक प्रभाव था कि प्रेमचंद का गतिरोध करना असंभव हो गया। उस समय लोगों की दृष्टि गाँधीवाद के व्यवहार पक्ष तक ही सीमित थी, उनके अध्यात्म तक नहीं पहुँच पाई थी। जीवन के इस तल तक पहुँचने का प्रयत्न जैनेंद्रजी ने किया है। विवेक और नीति से आगे आत्म-तत्त्व की ओर बढ़ने का उनको और सियारामशरण जी को आरंभ से ही आग्रह रहा है। उनकी पीड़ा की फ़िलॉसफ़ी में गाँधीवाद का अध्यात्म पक्ष ही तो है। इस दृष्टिकोण की दो तात्कालिक प्रतिक्रियाएँ हमें भगवती बाबू की 'चित्रलेखा' और अज्ञेय के 'शेखर' में मिलती है। भगवती बाबू आस्तिक प्रवृत्तिवादी हैं। पीड़ा में उनका विश्वास नहीं। उनकी आस्था स्वस्थ उपभोग में है अहं के निषेध में नहीं, अहं के परितोष में है। अज्ञेय का दृष्टिकोण शुद्ध वैज्ञानिक और बौद्धिक है। ये नास्तिक बुद्धिवादी हैं। इनके इसी दृष्टिकोण की दृढ़ता और स्थिरता के कारण वास्तव में 'शेखर' हिंदी की एक अभूतपूर्व वस्तु बन गया। बुद्धि की इस दृढ़ता के साथ काश अज्ञेय के पास आस्तिकता का समर्पण भाव भी होता। यशपाल में यह प्रतिक्रिया एक पग और आगे बढ़ जाती है। उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक रहकर भौतिकवादी हो जाता है। अज्ञेय की बौद्धिकता उनमें भी है, परंतु वैज्ञानिक आत्मलीनता उनमें नहीं है ये अपने से बाहर जाते हैं। इनमें भौतिकवादी सामाजिकता है...।”

    ऊबे हुए लोगों में से इतने में ही एक तेज आवाज़ आई 'आपने क्या खूब संश्लेषण किया है? बस अब छुट्टी दीजिए! ''मैंने आँखें मलते हुए देखा कि काफी दिन चढ़ गया है और श्रीमती जी पूछ रही हैं “छुट्टी है क्या आज?

    स्रोत :
    • पुस्तक : नगेन्द्र ग्रंथावली भाग 7 (पृष्ठ 127)
    • रचनाकार : नगेंद्र

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