दूधनाथ सिंह के उद्धरण
जो भी विचार ख़ुद के विरुद्ध जाता है, वह ख़ुद को चाटना शुरू कर देता है।
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जो भी विचार ख़ुद के विरुद्ध जाता है, वह ख़ुद को चाटना शुरू कर देता है।
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ऐसा साफ़-सुथरा, पवित्र आदमी, जो अपने व्यक्तित्व की हर शिकन, हर वक़्त झाड़ता-पोंछता रहता हो—वह प्रेम कैसे कर सकता है?
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प्रेम क्षणों में ही नवजात, सुंदर और अप्रतिम रहता है। फिर भी उस प्रेम को पाने के लिए ‘होल-टाइमर’ होना पड़ता है।
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अकेलेपन, दुःख और एकांत को जो दार्शनिक जामा पहनाने की आदत है, वह तभी सुंदर और महान लगती है, जब ख़त्म हो जाने का डर न हो।
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‘फ़ैशन’ और ‘फ़न’ के कोलाहल में आ जाना अर्जित और अभ्यासीकृत प्रतिभा के लोगों का चलन है।
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प्रेम में मैला-कुचैला होना पड़ता है। प्रेम में अपने व्यक्तित्व को झुकाना और छोटा करना पड़ता है। अपने को ‘नहीं’ करना पड़ता है, भूलना पड़ता है—इज़्ज़त-आबरू, घर-द्वार, कविता-कला, खान-पान, जीवन-मरण, ध्येय, उच्चताएँ-महानताएँ—सब धूल में मिल जाती हैं… तब मिलता है प्रेम।
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प्रेम या दाम्पत्य ‘स्वर्गीय विधान’ की तरह नहीं होते। उसे खोजना और पाना पड़ता है। और अक्सर जब आप समझते हैं कि आपने उसे पूरी तरह पा लिया है, तभी आप उसे खो रहे होते हैं।
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जो लेखक समय के समग्र शिल्प में जीवित नहीं रहता उसकी विकलांगता निश्चित है।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere